एक दिन रास्ते में मेरा पैर किसी चीज से टकराया और मैं ठिठक कर रुक गया,
झुक कर देखा, तो कुछ ख़ास ना था, यह था एक पत्थर...
एक निर्मम, निर्जीव, निरीह पत्थर।
उस पत्थर की हिम्मत पर मुझे आश्चर्य हुआ और रोष भी,
एक अदना सा पत्थर और इंसान से टकराने का साहस...
पर वो चुप था, कुछ ना बोला, क्योंकि वो था एक पत्थर...
एक निर्मम, निर्जीव, निरीह पत्थर।
मेरे इस विचार-मंथन के बीच, कुछ लोग आये,
उसे उठाया और एक कार के शीशे पे दे मारा,
फिर पुलिस आई, दो को धरा, चार को साथ ले गई,
पर अभी भी, मेरी आँखों के सामने, पास की मिट्टी में, पड़ा था, वही एक पत्थर...
एक निर्मम, निर्जीव, निरीह पत्थर।
तभी एक ढोंगी आया, साधु-वेश बना, उसने उसी पत्थर को उठाया,
फिर नल के जल से पवित्र कर, उसे फूलों का हार पहनाया,
भीड़ जुटी, आरती हुई और ढेर सा चढ़ावा उस पत्थर ने पाया,
चढ़ावा समेट साधु के जाने के बाद,
मेरे सामने, फूलों का हार पहने, पड़ा था, वही एक पत्थर...
एक निर्मम, निर्जीव, निरीह पत्थर।
अब उस पत्थर का महात्मय समझ आने लगा था,
जिसे जाना था तुच्छ, उसी को मैं सिर नवाने लगा था,
फिर पास जाकर उसके, शुरू की मैंने मेरी प्रार्थना -
हे पत्थर देवता! आप भाग्य-विधाता,
कहीं विध्वंस का कारण, कहीं सृष्टि निर्माता,
किसी को देते दंड, किसी को देते दाना,
विधना की सृष्टि का, तुम ही बुनते ताना-बाना,
तुम्हारे बिना विधाता का नहीं कोई आकार,
तुमने ही उसे बनाया, सगुण और साकार।
हे पत्थर देवता! आपके प्रति दुर्भावना के लिए, मैं क्षमाप्रार्थी हूँ,
अपने घर के गल्ले पर, सदा करता आपकी ही आरती हूँ,
अभी एक छोटा कवि हूँ, मुझे आप महान बनाना,
इसीलिये चढ़ा रहा हूँ ये, ग्यारह रूपये और चार आना।
ऐसा कहकर मन में श्रद्धा भाव लिए, मैं1