कल रात मैंने देखा स्वप्न में,
कैसे ईश्वर..., कैसी मैं हूँ।
वो पुरुष बड़े थे बलशाली,
विशालकाय और अतिभारी,
ना आदि दिखा, ना अंत दिखा,
पर अपना स्वरुप निश्शंक दिखा,
मैं थी रक्त की इक बून्द सम,
बह रही थी उसके अंगों में,
वो अंग क्या था मुझे नहीं पता,
ईश्वर था कैसा, ये मुझे नहीं दिखा,
पर हाँ मैं अनुभव कर पाई,
उसकी हर साँस, उसकी धड़कन,
वो बाहर था, वो भीतर था,
था चला रहा मेरा जीवन,
मैं हिलती थी, मैं बहती थी,
पर नहीं थी इच्छा वो मेरी,
थी समझ रही, थी मैं जान रही,
पर बस ना था उस होनी पर,
मेरे करने को कुछ ना था,
वो ईश्वर था मुझे हिला रहा,
उसके अंगों भीतर बहती,
इक रक्त-बून्द को चला रहा,
हुआ क्षोभ यही, मैं थी जड़ सी,
वो मुझको चेतन बना रहा,
मुझसे मेरे 'मैं' को हर,
मुझको था स्वयं में मिला रहा,
मेरा अपना कोई नाम नहीं,
अस्तित्व नहीं, पहचान नहीं,
कोई रूप नहीं, आकार नहीं,
मन से कर लूँ ऐसी बात नहीं,
एक प्रक्रिया का क्षणिक भाग,
मन में ना कोई इच्छा, ना कोई राग,
सब जैसी साधारण सी मैं थी,
ना जाने किस कार्य के लिए बनी,
नहीं देख कभी मैं पाऊँगी,
मेरा ईश्वर दिखता कैसा,
है पुरुष या कि स्त्री स्वरुप,
कैसा मोहक है उसका रूप,
मैं हतप्रभ थी ये जान वहाँ,
मैं थी ईश्वर का भाग वहाँ,
कह सकती थी, मैं हूँ ईश्वर,
बसता वो मेरे बाहर-भीतर,
मेरे भीतर, तेरे भीतर,
वो बसा हुआ सबके भीतर,
या कहना यही उचित होगा,
कि हम सब थे उसके भीतर,
वो पुरुष-पुरातन चला रहा,
था हम सबको वो नचा रहा,
हम मृत होकर फिर जन्म गए,
ले रहे कभी थे स्वरुप नए,
इक क्षण भी नहीं इसमें लगता,
जिसमें सबका जीवन चलता,
जीवन जीने की कोई ख़ुशी नहीं,
कोई भय था नहीं1