'स्वतंत्र' कोई संज्ञा नहीं... एक विचार है।
स्वतंत्र कोई तन से नहीं मन से होता है।
अत्याचार तो राजतंत्र, परतंत्र और जनतंत्र तीनों में हुए,
'तन' तो सदा घायल ही रहा... 'तेरा' भी और 'मेरा' भी।
'तू' और 'मैं' कल भी चिल्लाये थे 'मरा-मरा' और आज भी,
ना कल 'हमने' कुछ किया था, ना आज किया है।
कल चौपालों पर बैठे बतियाते थे,
आज सोशल मीडिया पर...
पर समस्या कल भी थी और आज भी है।
कल चन्द लोग चिल्लाये थे...
'हम' स्वतंत्र होकर रहेंगे, और 'वो' स्वतंत्र हुए भी।
'परतंत्रता' के विचारों को पीछे छोड़,
वो बतियाये नहीं... लड़े।
कुछ जिये... कुछ मरे... पर कुछ कर गए।
'हमने' कुछ नहीं किया, बस चिल्लाये...
'हम तुम्हारे साथ हैं'।
उनके साथ नारे लगाए, उनके साथ अत्याचार सहे,
पर 'सोच'... सोच ही तो ना पाए कि क्या किया जाए।
और 'स्वतंत्र' कोई संज्ञा नहीं... एक विचार है,
बिना 'सोचे' कैसे पूरा हो सकता है।
कल हम 'सेवक' बनाये गए, तो 'सेवा' देने लगे,
'सोच' नहीं थी वहाँ..., सिर्फ 'निर्देश' थे,
आज हमें 'जनसेवक' दिए गए,
पर मालिक की सोच तो होनी चाहिए,
बिना सोच, बिना निर्देश सेवक काम नहीं करते,
हमें तो खुद नहीं पता की हम क्या चाहते हैं...
कैसे पूरा कर सकते हैं अपने सपनों को...
कल कुछ अत्याचारी मालिकों के अधीन थे,
आज कुछ मनमाने 'सेवकों' के।
हम डरते हैं और कुछ नहीं करते हैं,
इसीलिए खैरात में स्वतंत्रता मिलने के बाद भी,
हम परतंत्र हैं।
क्योंकि 'स्वतंत्रता' कोई तोहफ़ा नहीं,
जो दिया या लिया जा सके...
वो एक विचार है...
जो 'मेरे' और 'तेरे' अंतर्मन में निहित है।
बस वो है एक विचार और मैं उसकी 'विचारक'।