जो शिकार होता है, वो ‘शिकार’ होता है,
क्यूँकि वो कमज़ोर है...
उसमें नहीं है ताक़त अपने आप से लड़ने की,
उसमें नहीं है ताक़त डर को पीछे छोड़ आगे बढ़ने की,
उसमें नहीं है ताक़त सच को स्वीकार करने की,
उसमें नहीं है ताक़त स्वयं को नियंत्रित रखने की,
पर जाने क्यूँ दुनिया,
उम्मीद करती है उससे ताक़त की,
जाने क्यूँ सोचती है कि वो होते तो ऐसा करते,
वो होते तो वैसा करते,
अरे वो होते ही नहीं ना...
क्यूँकि जो शिकार होता है,
वो ‘शिकार’ होता है,
क्यूँकि वो कमज़ोर है...
और ‘दुनिया’ में तो बहुत ताक़त है,
‘दुनिया’ ना तो तनहा है
और ना ही कमज़ोर...
और ‘दुनिया’ के पास ज़ुबान भी है,
इसीलिए तो वो ‘शिकार’ नहीं है,
पर जब वो अपने डर को पीछे छोड़
अपनी क्षमताओं से भी आगे बढ़ जाता है...
एक छोटा मेमना शेर से लड़ जाता है...
या सहमने की जगह भीड़ में चढ़ जाता है...
तो छीन लाता है वो एक ज़िंदगी और एक ख़ुशी,
एक नई सोच और एक नया तज़ुरबा...
जो बनाते हैं उसे भीड़ से अलग एक मिसाल,
नहीं करती दुनिया उससे फिर कोई सवाल,
और वो नहीं रह जाता ‘शिकार’|