:: What was in my mind ::
Many a times we are unable to pronounce Sanskrit Stotra and Mantra in the way they should... due to lesser knowledge of Sanskrit and Sandhi (Words Conjunction). So it is a try from my side to provide a clear voice pronunciation of words and letters with hard word meaning and complete translation of Stotra in Hindi.
श्री गणपति अथर्वशीर्षम्
हरिः ॐ ॥
नमस्ते गणपतये। समस्त जीवों(योनि/जाति) के स्वामी को नमस्कार है।
त्वमेव प्रत्यक्षं तत्त्वमसि। केवल आप ही वो प्रत्यक्ष सूक्ष्मतम तत्व हैं जो परोक्ष चैतन्य (आत्मा) को आवरण दे, प्रत्यक्ष बनाता है।
त्वमेव केवलं कर्तासि। आप ही समस्त सृष्टि की उत्पत्ति के कारण स्वरूप हैं।
त्वमेव केवलं धर्तासि। आप ही केवल समस्त सृष्टि को धारण (पालन) करते हैं।
त्वमेव केवलं हर्तासि। आप ही केवल सृष्टि का हरण (अंत / संहारकर्ता) करते हैं।
त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि। आप ही सत्य स्वरुप सम्पूर्ण ब्रह्म (एक निर्विशेष, सर्वव्यापी, स्वप्रकाश, नित्य, स्वयं सिद्ध चेतन तत्त्व) हैं।
त्वं साक्षादात्मासि नित्यम्। आप ही साक्षात् नित्यात्मा (समस्त सृष्टि की निरंतर चेतना) हैं।
(इस प्रकार यह आपका ब्रह्म अद्वैत स्वरूप है।)
ऋतं वच्मि। उचित कहती हूँ (दैवीय वास्तविकता बतलाती हूँ)।
सत्यं वच्मि। सत्य कहती हूँ (सार्वभौमिक सत्य कहती हूँ)।
कि सम्पूर्ण सृष्टि में प्रत्येक प्राणी और दृश्य तथा अदृश्य में निहित ऊर्जा और चेतना का एक ही स्रोत हैं, जो गणेश जी (ईश्वर) आप हैं।
अव त्वं माम्। आप मेरी (इस अनुभूति की) रक्षा कीजिये।
अव वक्तारम्। इस स्तोत्र के (इस अनुभूति को बताने वाले) वक्ता की रक्षा कीजिये।
अव श्रोतारम्। इस स्तोत्र के (इस अनुभूति को सुनने वाले) श्रोता की रक्षा कीजिये।
अव दातारम्। इस स्तोत्र के ज्ञान के दाताओं (इस अनुभूति के ज्ञान को अग्रेषित करने वाले) की रक्षा कीजिए।
अव धातारम्। इस स्तोत्र को स्मरण करने वालों (इस अनुभूति के ज्ञान को स्मृति में जीवित रखने वाले) की रक्षा कीजिए।
अवानूचानमव शिष्यम्। इस स्तोत्र को दोहराने वाले शिष्यों की रक्षा कीजिए।
अव पश्चात्तात्। हे गणेश जी! आप पीछे से (इस अनुभूति की) रक्षा कीजिये।
अव पुरस्तात्। आगे से (इस अनुभूति की) रक्षा कीजिये।
अव चोत्तरात्तात्। उत्तर की ओर से (इस अनुभूति की) रक्षा कीजिये।
अव दक्षिणात्तात्। दक्षिण की ओर से (इस अनुभूति की) रक्षा कीजिये।
अव चोर्ध्वात्तात्। उर्ध्व भाग से (ऊपर से) (इस अनुभूति की) रक्षा कीजिये।
अवाधरात्तात्। अधो भाग से (नीचे की ओर से) (इस अनुभूति की) रक्षा कीजिये।
सर्वतो मां पाहि पाहि समन्तात्। सब दिशाओं से, सब ओर से मेरी (इस अनुभूति की) रक्षा कीजिये, प्रभु! रक्षा कीजिये।
त्वं वाङ्मयस्त्वं चिन्मयः। आप वाणी स्वरुप हैं, चित् स्वरुप (चेतना/ऊर्जा) हैं (अतः यह अनुभूति आपके कारण ही आगे पहुँचती है।)
त्वमानन्दमयस्त्वं ब्रह्ममयः। आप आनंद (सर्वोत्कृष्ट प्रसन्नता) स्वरुप हैं, ब्रह्मस्वरूप हैं (अतः यह अनुभूति सर्वोत्कृष्ट प्रसन्नता प्रदान करती है।)
त्वं सच्चिदानन्दाद्वितीयोऽसि। आप सत्-चित्-आनंद के अद्वितीय भण्डार हैं (अतः यह अनुभूति चेतना (समझ) के उन्नत स्तर पर ले जाती है।)
त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। आप प्रत्यक्ष ब्रह्म (सृष्टि) हैं (अतः यह अनुभूति आपके ब्रह्म स्वरूप का आभास कराती है।)
त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि। आप ज्ञान तथा विज्ञान के स्वरुप हैं (अतः सम्पूर्ण सृष्टि की भलाई के लिए इस अनुभूति की रक्षा करें।)
सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते। यह सम्पूर्ण सृष्टि आपसे ही उत्पन्न हो रही है।
सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति। यह सम्पूर्ण सृष्टि आपकी ऊर्जा से ही स्थित (और पोषित/वृद्धिमान) है।
सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति। यह सम्पूर्ण सृष्टि आप में ही लीन (समा) हो जाएगी।
सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति। यह सम्पूर्ण सृष्टि आप में ही पुनः प्राप्त होती है।
(अतः हे गणपति! हमें हमारे हृदय में आपके इस स्वरूप की अनुभूति कराइये।)
त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभः। आप ही पंचतत्वों के मूल तत्व (ऊर्जा) हैं, जो स्वरूप परिवर्तन द्वारा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश रूप में विद्यमान हैं।
त्वं चत्वारि वाक्पदानि। आप ही वाणी के चार पाद (प्रकार) हैं। (परा, पश्यन्ति, मध्यमा, वैखरी)
त्वं गुणत्रयातीतः। आप सत-रज-तम तीनों गुणों से परे हो।
त्वं कालत्रयातीतः। आप भूत-वर्तमान-भविष्य तीनों कालों से परे हो।*
त्वं देहत्रयातीतः। आप स्थूल शरीर, कारण शरीर और सूक्ष्म शरीर से परे हैं।
(अतः आप मेरे मानस को अपने उस दिव्य और चैतन्य स्वरूप में स्थिर कराइये, जो मेरे अंदर विद्यमान तीनों गुणों द्वारा या मेरे किसी भी शरीर, मन आदि की कल्पना द्वारा किसी भी काल की गणनाओं द्वारा जाना नहीं जा सकता, फिर भी वो सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है, मेरे भीतर और बाहर है, मेरे द्वारा सोचे हुए और कहे हुए हर शब्द में निहित है।)
त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यम्। आप शरीर के भीतर मूलाधार चक्र में निवास करते हैं।
त्वं शक्तित्रयात्मकः। इस शरीर युक्त चैतन्य (जीव) में ही ज्ञान, इच्छा व क्रिया रूप शक्तियाँ रहती हैं। जो आप ही का एक रूप है।
त्वां योगिनो ध्यायन्ति नित्यम्। योगीजन सदैव आपका ध्यान करते रहते हैं।
त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं रुद्रस्त्वमिन्द्रस्त्वमग्निस्त्वं वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चन्द्रमास्त्वं ब्रह्मभूर्भुवः सुवरोम्।
आप ही ब्रह्मा हैं, आप ही विष्णु, आप ही रूद्र, आप ही इन्द्र(वो आत्मा / नियंता जो दैवीय शक्ति युक्त प्रकृति को नियंत्रित करता है), आप ही अग्नि(वो यज्ञ की सात्विक अग्नि जिसके द्वारा समस्त देव पुष्ट होते हैं), आप ही वायु(प्रकृति के वो प्राण जिसके बिना प्राणियों में चेतना नहीं है), आप ही सूर्य(समस्त ग्रहों के तेजोमय अधिपति), आप ही चन्द्र(समस्त नक्षत्रों के स्वामी), आप ही समष्टि (सबकुछ आप में ही एकाकार) और व्यष्टि (आप हर रूप में व्यक्त) रूप में साक्षात् परंब्रह्म ओम् हैं।
(इस प्रकार प्रकृति के कण-कण में समाहित हो, फिर भी उससे भिन्नता रखकर यह आपका द्वैत स्वरुप है।)
गणादिं पूर्वमुच्चार्य वर्णादिं तदनन्तरम्। अनुस्वारः परतरः। अर्धेन्दुलसितम्। तारेण रुद्धम्। एतत्तव मनुस्वरूपम्।
गण शब्द के आदि अक्षर 'ग्' शब्द को पहले बोलकर, उसमें वर्णों के आदि अक्षर 'अ' को जोड़कर पूर्ण वर्ण 'ग' लें। उसके ऊपर अनुस्वार या बिंदी लगायें, जो अर्द्ध चंद्र के साथ (गणपति के शीश को) शोभायमान करती है और तारा (बिंदु) उसे बढ़ाता है, ये ही (गणेश जी) आपका एकाक्षरी (बीज मन्त्र) मन्त्र स्वरूप है।
गकारः पूर्वरूपम्। अकारो मध्यमरूपम्। अनुस्वारश्चान्त्यरूपम्। बिन्दुरुत्तररूपम्। नादः संधानम्। संहिता संधिः।
इस एकाक्षरी मन्त्र के उच्चारण में 'ग' कार प्रथम, तत्पश्चात् 'अ' कार का उच्चारण तथा अनुस्वार (बिंदु) का अंतिम उच्चारण हो। बिंदु जो ऊपर लगा है, उसके साथ 'नाद' (कम्पन ध्वनि) जोड़ें और सबको एक साथ बोलें।*(गं)
सैषा गणेशविद्या। गणक ऋषिः। निचृद्गायत्रीच्छन्दः। गणपतिर्देवता।
यह गणेश विद्या है, जिसके ऋषि 'गणक' हैं, निचृद् गायत्री छंद (जिसमें तीन पंक्तियों में आठ-आठ पूर्ण वर्ण होते हैं, कुल चौबीस वर्ण) तथा गणपति जी इसके देवता हैं।
।।ॐ गं।। (गणपतये नमः)
एकदन्ताय विद्महे
वक्रतुण्डाय धीमहि
तन्नो दन्तिः प्रचोदयात्।
बीजमंत्र (ॐ गं) बोलते हुए प्रसन्न मुख वाले गणेश जी का ध्यान करें। हम उन गणपति जी की अनुभूति करते हैं, जो एक दाँत वाले हैं, उन गणपति जी का ध्यान करते हैं जो मुड़ी हुई कल्याणकारी सूंड वाले हैं, वे दन्ति! (एकदन्त) हमारा आध्यात्मिक विकास करें, हमें शक्तिवान और ऊर्जावान बनायें और उनके कार्यों को पूरा करने में समर्थ बनायें।
एकदन्तं चतुर्हस्तं पाशमङ्कुशधारिणम्।
(उन गणपति को नमस्कार है) जो एक दाँत वाले हैं, चार भुजा धारी हैं और हाथ में पाश (परशु / फरसा) और अंकुश धारण किये हुए हैं,
अभयं वरदं हस्तैर्बिभ्राणं मूषकध्वजम्।
जिनकी कल्याणकारी वरदात्री हस्त मुद्रा है, जो उनके भक्तों को भय से मुक्ति प्रदान करती है तथा जो मूषक ध्वज धारण किये हैं,
रक्तं लम्बोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम्।
जो लम्बे उदर वाले हैं और रक्त वर्ण की आभा से सुशोभित हैं, जिनके बड़े-बड़े शूर्प (छांजना / लकड़ी की डंडियों से बुना सूप) के समान कान हैं और जो रक्तवर्णी वास (वस्त्र) धारण किये हुए हैं,
रक्तगन्धानुलिप्ताङ्गं रक्तपुष्पैस्सुपूजितम्।
जो लाल चन्दन का लेप शरीर पर लगाए हैं और जिन्हें पूजा में रक्त पुष्प (गुलाब, कमल आदि) अति प्रिय हैं,
भक्तानुकम्पिनं देवं जगत्कारणमच्युतम्।
जो भक्तों पर अनुकम्पा (कृपा) करने वाले ईश्वर हैं, जो सम्पूर्ण सृष्टि (जगत) का कारण हैं और जो अचल / अविचलित (स्थिर बुद्धि वाले) हैं,
आविर्भूतं च सृष्ट्यादौ प्रकृतेः पुरुषात्परम्।
जो सृष्टि के आदि में आविर्भूत (प्रकट) हुए हैं (अर्थात् जिनसे पहले कुछ भी नहीं था), जो प्रकृति स्वरूप हैं और जो पुरुषों (चेतना) में परम ( सर्वोत्तम / पुरुषोत्तम) हैं,
एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वरः।
जो कोई इस प्रकार गणपति जी का नित्य ध्यान लगाता है (केवल अथर्वशीर्ष पाठ ही नहीं, अनुभूति और कल्पना के साथ ध्यान) वो योगियों में सर्वोत्तम योगी है।
नमो व्रातपतये नमो गणपतये नमः प्रमथपतये नमस्तेऽस्तु लम्बोदरायैकदन्ताय विघ्नविनाशिने शिवसुताय श्रीवरदमूर्तये नमो नमः।
हे समस्त मानवों के स्वामी आपको नमस्कार है। हे समस्त गणों (सृष्टि की समस्त योनियों) के स्वामी आपको नमस्कार है। हे देवताओं में प्रथम पूज्य देव आपको नमस्कार है। हे लम्बोदर, एकदन्त, विघ्नों का विनाश करने वाले शिव जी के पुत्र श्री मंगलमूर्ति (वरमुद्रा धारण करने वाले) गणपति को (बारम्बार) नमस्कार है, नमस्कार है।
इसके पश्चात् इसकी फलश्रुति (पाठ का फल) दी गई है, जिसका हिंदी अनुवाद इस प्रकार है -
इस अथर्वशीर्ष का जो अध्ययन करता है, वो ब्रह्मस्वरूप होने का वास्तविक प्रयत्न करता है। वो किसी भी विघ्न से बाधित नहीं होता। वह सब और से सुख प्राप्त करता है। वह पञ्च महापातकों और उपपातकों से मुक्त हो जाता है। सांयकाल पाठ करने वाले के दिनभर के पाप नष्ट हो जाते हैं, प्रातःकाल पाठ करने वाला रात्रि कृत दोषों से मुक्त हो जाता है। सांय-प्रातः पाठ करने वाला पापरहित (चित्त का) हो जाता है और धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष को प्राप्त करता है। इस अथर्वशीर्ष को अशिष्य / कुपात्र को नहीं देना चाहिए। जो मोहवश ऐसा करता है वह पापभाजन बनता है। इस स्तोत्र की एक हजार आवृत्तियाँ होने पर, पाठक जो-जो चाहता है, वह प्राप्त कर लेता है। इस स्तोत्र के द्वारा जो गणपति जी का अभिषेक करता है, वह कुशल वक्ता बनता है। चतुर्थी तिथि को निराहार रहकर, जो जाप्ता है, वह विद्यावान बनता है, यह अर्थपूर्ण सत्य है। ब्रह्मादि का आचरण भी विद्या से ही है। कभी भी डरना नहीं चाहिए। जो दूर्वांकुरों से यजन करता है, वह वैश्रवण (कुबेर) के समान हो जाता है। जो खील या धान के लावा (अंकुरित पौधा) से यजन करता है, वह सुयश पाता है, मेधावी होता है। जो हजार लड्डुओं से यजन करता है, वह वांछित फल प्राप्त करता है। जो घृतयुक्त समिधाओं से यजन करता है, वह सब कुछ पाटा है। आठ ब्राह्मणों को सम्यक प्रकार से इस स्तोत्र को भेंट करने से (उनके द्वारा पाठ कराने से)सूर्य के सामान तेजस्वी होता है। सूर्यग्रहण के अवसर पर महानदी अथवा प्रतिमा के समीप जपने से मंत्रसिद्ध होता है। महाविघ्न से छूट जाता है। महादोष से मुक्त हो जाता है। वह सर्वज्ञ होता है, वह सर्वज्ञ होता है, ऐसा जानना चाहिए।
इस मन्त्र को इतने विस्तार से लिखने के दो उद्देश्य हैं, प्रथम - संस्कृत भाषा आज समाप्त हो रही है, बच्चे प्रारंभिक ज्ञान को भी नहीं लेते और तृतीय भाषा में फ्रेंच, स्पेनिश या अन्य कोई चुन लेते हैं। विदेशी भाषा पढ़ना गलत नहीं है, पर अपने देश की भाषा को तिलांजलि दे, अपनी संस्कृति को भुलाने के मूल्य पर नहीं। दूसरा - हमारे प्राचीन मन्त्र केवल मन्त्र नहीं ज्ञान के भण्डार हैं, जिनका एक एक शब्द अपने आप में पूरी दुनिया समेटे हुए है। संस्कृत पढ़ने या रटने की नहीं अनुभूति करने की भाषा है। सो आप सभी पाठकों से मेरा विनम्र अनुरोध है कि मन्त्रों को, स्तोत्रों को केवल भगवान् से कुछ मांगने के लिए न पढ़ें, उसके लिए तो हम स्वयं में ही सक्षम हैं, पढ़ें तो उसे अनुभव करें, ईश्वरीय तत्व को जानें, चंद रूपये, नौकरी, स्वास्थ्य, विवाह आदि बहुत तुच्छ हैं उस ज्ञान के आगे, उस अनुभूति के आगे, जो इनमें छुपी है। सो पढ़ें, पाठ करें, अनुभूति करें और कुछ ना मांगें। वो अपने आप देगा। जब उसका मन होगा और आपकी योग्यता, वो दे देगा। वैसे भी ये मनुष्य जीवन उसका दिया हुआ क्या कम उपकार है, जिसमें हम उसे जान सकते हैं, उसे अनुभूत कर सकते हैं, उसे पा सकते हैं। धन्यवाद।
अगर लेखनी या विचारों में कोई भूल हो गई हो, तो मैं क्षमाप्रार्थी हूँ। कृपया कमेंट करके भूलसुधार में मेरी सहायता करिए।
।।ॐ।।
कठिन शब्द
गं = गणेश जी के एकाक्षरी मन्त्र को आजकल 'गं' ऐसे ही लिखा हुआ पाते हैं, किन्तु श्री गणपति अथर्वशीर्षम् से स्पष्ट है कि ये मन्त्र 'गँ' है। एकाक्षरी मन्त्रों का उच्चारण ऐसा होना चाहिए कि वो एक ही अक्षर सुनाई और दिखाई दे। वैसे भी अब शब्दों का उचित उच्चारण हम भूलते जा रहे हैं। कुछ लोग इसे अंत में होठ बंद करके 'अम्' उच्चारित करते हैं, तो कुछ दन्तव्य 'अन्', तो कुछ नासिका 'अङ्ग्' का उच्चारण करते हैं। किन्तु इन सभी में ध्वनि एकाकार नहीं होती। अब मैं एक उदाहरण देती हूँ, हम हिंदी भाषी 'हंस' और 'हँस' का अंतर तो समझते हैं, नहीं समझ आया हो तो इन्हें उच्चारित करें, 'हँसना, चाँद, आँचल, गँवार'। जैसा कि हम समझ सकते हैं, इन सभी शब्दों में चँद्र बिंदु है और इनके प्रथम अक्षर के उच्चारण में न तो जीभ दाँत को लगती है, न होठ को। इनमें अंत में 'म्, न् या अं' की ध्वनि नहीं आती, अपितु 'अं' की ध्वनि साथ में सुनाई देती है। हालाँकि मैं न तो साधु हूँ न हिंदी या संस्कृत की विशारद। पर ये मेरा मत है। जब हम 'ॐ गँ गणपतये नमो नमः' बोलते हैं तो इस शब्द का उच्चारण 'अं' कर देते हैं क्यूँकि दो बार 'ग' की आवृत्ति से यह 'गङ्गा' की तरह बोलने में आ जाता है, जो मस्तिष्क का एक सुना हुआ प्रचलित शब्द है। पर ऐसा करना उचित नहीं है।
त्वमेव प्रत्यक्षं तत्त्वमसि। = तवं + इव प्रत्यक्षं तत्वं+असि।
प्रत्यक्षं तत्वं = हमारा (प्रत्येक वस्तु का) जो स्वरूप सृष्टि में प्रत्यक्ष है, वो अनेक अणुओं का एक संगठन मात्र है, ये अणु अग्नि, वायु, पृथ्वी, जल एवं आकाश स्वरूप पञ्च तत्वों से बने हैं। इन तत्वों का वो आधारभूत तत्व जो परोक्ष आत्मा को प्रत्यक्ष बनाता है, वो आप ही हैं।
असि = हैं
खल्विदं = खलु + इदं = सत्य (निश्चय ही) + यह
अव = रक्षा
धाता = स्मरण करने वाला, याद करने वाला
अवानूचानमव = अव + अनूचान + अव
अनूचान = अनुच्चारण = पुनरुच्चारण = दोहराना
त्वं वाङ्मयस्त्वं चिन्मयः। = त्वं वाङ्मयः + त्वं चिन्मयः
वाङ्मयः = वाणी अर्थात् ऊर्जा का वो स्वरूप जिससे हम भावों को अभिव्यक्त कर पाते हैं, शब्दों और वाक्यों की रचना कर पाते हैं, श्लोक और मन्त्रों का उच्चारण कर पाते हैं। यह ही शब्दरूप ब्रह्म है जिसे ईश्वर का साक्षात् स्वरूप माना गया है। वो आप ही हैं प्रभु।
सच्चिदानन्दाद्वितीयोऽसि = सत्+चित्+आनंद+अद्वितीय+असि = आपके चेतन स्वरूप के, प्रकृति के कण-कण में, आनंद ऊर्जा रूप में व्याप्ति से, उत्पत्ति के सर्वोत्कृष्ट (अद्वितीय) सत्य, जो कहा गया है, को समझने वाले सभी, चेतना (समझ) के उन्नत स्तर (ब्रह्म ज्ञान) को प्राप्त करते हैं।
त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि। इस सृष्टि में स्वयं के मूल आत्म स्वरूप के ज्ञान रूप तथा सम्पूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति के विज्ञान रूप आप ही हैं
जगदिदं = जगत् + इदं = यह जगत्/सृष्टि
भूमिरापोऽनलोऽनिलो = भूमिः+अापः+अनलः+अनिलः
चत्वारि वाक्पदानि = वाणी के चार पद, इनमें से तीन शरीर के अंदर होने से गुप्त हैं परन्तु चौथे को हम सभी जानते हैं। सुनाई देने वाली वाणी 'वैखरी' है। मौन अवस्था में अनेकों विचार/चिंतन चलता रहता है, वहाँ 'पश्यन्ति' की अनुभूति होती है, उनमें से ही किसी चिंतन से हम बिना शब्द बोले बात करने लगते हैं, यह ही 'मध्यमा' है और ये श्वास से प्रभावित होती है, इसीलिए प्राणायाम करते समय या श्वास पर ध्यान देने पर ये वाणी शांत हो जाती है। हमारे जीवन में होने वाली अनेकों घटनाओं में से कुछ का विचार एक समय में 'पश्यन्ति वाणी' में होता है, उन कुछ का चयन ही 'परा वाणी' है, जो अव्यक्त है। पूर्ण मौनावस्था में विचार शून्यता है, जहाँ 'परा वाणी' को भी विश्राम दिया गया है।
1)परा - आत्मा का वह मूल आधार जहाँ से ध्वनि उत्पन्न होती है, 'परा वाणी' है।
2)पश्यन्ति - हम जो कुछ बोलते हैं, उसका पहले चित्र/विचार हमारे मन में बनता है, यही 'पश्यन्ति वाणी' या वाणी का 'दृश्य' रूप है।
3)मध्यमा - इसके आगे मन व शरीर की ऊर्जा को प्रेरित कर न सुनाई देने वाली ध्वनि उत्पन्न होती है, जो ऊपर उठती हुई छाती से निःश्वास के साथ कंठ तक आती है, ये ही 'मध्यमा वाणी' है।
4)वैखरी - इसके आगे यह ध्वनि कंठ के ऊपर पांच स्पर्श स्थानों (कंठ, तालू, मूर्धा, दन्त (दांत), ओष्ठ (होठ)) की सहायता से सर्वस्वर, व्यंजन, युग्माक्षर और मात्रा द्वारा भिन्न-भिन्न रूप में वाणी के रूप में अभिव्यक्त होती है। ये ही 'वैखरी वाणी' है।
गुणत्रयातीतः = गुण + त्रयः + अतीतः = सत-रज-तम तीनों गुणों से परे = ब्रह्म रूप/परा प्रकृति रूप में आप ही माया/अविद्या (ऊर्जा के ऊपर चढ़ा वो आवरण जो अदृश्य को दृश्य बनाता है) द्वारा त्रिगुणात्मक प्रकृति का निर्माण करते हैं। सत-रज-तम गुण वाली त्रिगुणात्मक प्रकृति, जिससे सम्पूर्ण सृष्टि - स्थूल तथा चेतन जगत, दृश्य तथा अदृश्य तत्वों का निर्माण हुआ है, उसे निर्माण के लिए जो गति चाहिए, वो सर्वशक्तिमान नित्य चेतन गतिमान ऊर्जा आप ही हैं।
कालत्रयातीतः = तीनों कालों से परे = आप वो दिव्य ऊर्जा हैं जो अनादि और अनंत है। ब्रह्माण्ड में ऊर्जा (आप), ना नष्ट हो सकती है ना बढ़ सकती है, बस उसका रूप परिवर्तन होता रहता है, जिससे सृष्टि में निर्माण, वृद्धि और क्षरण प्रक्रिया निरंतर रहती है। इस प्रकार काल का प्रभाव सृष्टि पर पड़ता है, ऊर्जा (आप) पर नहीं।
देहत्रयातीतः = स्थूल शरीर, कारण शरीर और सूक्ष्म शरीर से परे।
1)स्थूल शरीर - वो दृश्य शरीर जिसका निर्माण पंचमहाभूतों द्वारा हुआ है, जो ज्ञानेन्द्रियों एवं कर्मेन्द्रियों द्वारा कार्य करता है।
2)सूक्ष्म शरीर - वो अदृश्य शरीर जो अदृश्य ऊर्जा (चक्रों) तथा शक्तियों द्वारा स्थूल शरीर की क्रियाओं को नियंत्रित करता है, सूक्ष्म शरीर इच्छा करता है, बुद्धि द्वारा सही-गलत का निर्णय करता है और कर्मफल द्वारा आकार बदलता है। सूक्ष्म शरीर द्वारा स्थूल शरीर और स्थूल शरीर द्वारा सूक्ष्म शरीर प्रभावित होता है और परिवर्तित होता है। यह शरीर पाँचों, प्राणों, पाँचों ज्ञानेन्द्रियों, पाँचों सूक्ष्मभूतों, मन, बुद्धि और अहंकार से युक्त होता है। इसे लिङ्ग शरीर भी कहते हैं।
3)कारण शरीर - ये वो बीज रचना है जो सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर को आकार देती है और जीवात्मा के पूर्व अनुभवों को आगे ले जाती है। ये सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर के निर्माण का 'कारण' होता है।
त्रिगुणों की साम्यावस्था में माया 'कारण शक्ति' रूप से विद्यमान रहती है। पर तमोगुण का प्राधान्य होने पर उसकी विक्षेप शक्ति(विघटन विस्तार) के सम्पन्न चैतन्य से आकाश की, आकाश से वायु की, वायु से अग्नि की, अग्नि से जल की और जल से पृथिवी की क्रमशः उत्पत्ति होती है। इन्हें अपञ्चीकृत भूत कहते हैं। इन्हीं से आगे जाकर सूक्ष्म व स्थूल शरीरों की उत्पत्ति होती है। आकाशादि अपञ्चीकृत भूतों के पृथक्-पृथक् सात्त्विक अंशों से क्रमशः श्रोत्र, त्वक्, चक्षु, जिह्वा और घ्राण इन्द्रिय (शक्ति, अंग नहीं) की उत्पत्ति होती है। इन्हीं पाँच के मिलित सात्त्विक अंशों से बुद्धि, मन, चित्त व अहंकार की उत्पत्ति होती है। ये चारों मिलकर 'अंतःकरण' कहलाते हैं। बुद्धि व पाँच ज्ञानेन्द्रियों (शक्ति) के सम्मेल को ज्ञानमयकोष कहते हैं। इसमें घिरा हुआ चैतन्य ही जीव कहलाता है। जो जन्म मरणादि करता है। मन व ज्ञानेन्द्रियों के सम्मेल को मनोमय कोष कहते हैं। आकाशादि के व्यष्टिगत राजसिक अंशों से पाँच कर्मेन्द्रियाँ (शक्ति) उत्पन्न होती हैं और इन्हीं पाँचों के मिलित अंश से प्राण की उत्पत्ति होती है। वह पाँच प्रकार का होता है–प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान। नासिका में स्थित वायु प्राण है, गुदा की ओर जाने वाला अपान है, समस्त शरीर में व्याप्त व्यान है, कण्ठ में स्थित उदान और भोजन का पाक करके बाहर निकलने वाला समान है। पाँच कर्मेन्द्रियों व प्राण के सम्मेल से प्राणमय कोष बनता है। शरीर में यही तीन कोष काम आते हैं। ज्ञानमय कोष से ज्ञान शक्ति, मनोमय कोष से इच्छा शक्ति तथा प्राणमय कोष से क्रिया शक्ति होती है। इन तीनों कोषों के सम्मेल से सूक्ष्म शरीर बनता है। इसी में वासनाएँ रहती हैं। यह स्वप्नावस्था रूप तथा अनुपभोग्य है। पंजीकृत उपरोक्त पञ्च भूतों से स्थूलशरीर बनता है। इसे ही अन्नमय कोष कहते हैं। यह जागृत स्वरूप तथा उपभोग्य है। वह चार प्रकार का है–जरायुज, अण्डज, स्वेदज, व उद्भिज्ज (वनस्पति)। (5)
मूलाधार = मूलाधार चक्र शरीर के सात चक्रों में सबसे नीचे वाला चक्र होता है, जो चार पाँखुरी वाले कमल के सामान होता है तथा जिसका बीज मंत्र 'लं' है। गणपति जी इसके देवता हैं और कुण्डलिनी शक्ति सुप्तावस्था में यहीं निवास करती है।
ब्रह्मभूर्भुवः सुवरोम् = ब्रह्म+भूः+भुवः+स्वः+ओम् -
भूः - जो सब जगत् के जीवन का आधार, प्राण से भी प्रिय और स्वयम्भू है, उस प्राण का वाचक होके ‘भूः’ परमेश्वर का नाम है।
भुवः - जो सब दुःखों से रहित, जिसके संग से जीवन सब दुःखों से छूट जाते हैं, उस परमेश्वर का नाम ‘भुवः’ है।
स्वः - जो नानाविध जगत् में व्यापक होकर सब को धारण करता है, उस परमेश्वर का नाम ‘स्वः’ है।
ये तीनों वचन तैत्तिरीय आरण्यक ग्रन्थ के हैं
गणादिं = गण + आदि = गण शब्द + आदि (आरम्भ)
पूर्वमुच्चार्य = पूर्वम् + उच्चार्य = पहले उच्चारण करके
परतरः = तत्पश्चात्
अर्धेन्दुलसितम् = अर्धेन्दु + लसितम् = अर्द्ध चंद्र + शोभायमान
रुद्धम् = बढ़ाना
मनु = मन्त्र
सैषा = सः + एषा = यह है (स्त्रीलिङ्ग)
निचृद् गायत्री छंद = संस्कृत काव्य का एक प्रकार, जिसमें तीन पंक्तियाँ होती हैं और प्रत्येक पंक्ति में आठ पूर्ण वर्ण (अक्षर) होते हैं (पूर्ण अक्षर हलन्त वाले नहीं माने जाते अतः अर्द्धाक्षर, हलन्त अक्षर, बिंदु तथा अन्य मात्राओं की इसमें गिनती न करें) , अगर किसी पंक्ति में सात ही अक्षर रह जाएँ तो बोलते समय आधे अक्षर को पूर्ण बोलना होता है। इसका एक और उदाहरण स्वयं 'गायत्री मन्त्र' है।
।।ॐ भूर्भुवः स्वः।।
तत् सवितुर् वरेण्यम् = तत्+स+वि+तुर्+व+रे+ण्यम् =7 (अतः बोलते समय वरेणीयम् उच्चारण करते हैं)
भर्गो देवस्य धीमहि = भ+र्गो+दे+व+स्य+धी+म+हि =8
धियो यो नः प्रचोदयात् = धि+यो+यो+नः+प्र+चो+द+यात् =8
इसी प्रकार -
।।ॐ गं।।
एकदन्ताय विद्महे = ए+क+द+न्ता+य+वि+द्म+हे =8
वक्रतुण्डाय धीमहि = व+क्र+तु+ण्डा+य+धी+म+हि=8
तन्नो दन्तिः प्रचोदयात् = त+न्नो+द+न्तिः+प्र+चो+द+यात्=8
वक्रतुण्डाय = वक्र + तुण्डाय = मुड़ी हुई सूंड है जिनकी
विद्महे = विद् + महे = जानना (अनुभूति करना) + (हम) करते हैं
धीमहि = धी + महि = प्रज्ञा (बुद्धि से देखना / ध्यान) + (हम) करते हैं
तन्नो = तत् + नो = वह (वे गणेश जी) + हमें
प्रचोदयात् = प्र+चोद्+यात् = चोद् - प्रेरणा / प्रेरित करना (ईश्वरीय कार्यों की ओर प्रेरित हों)
जगत्कारणमच्युतम् = जगत् + कारणम् + अच्युतम्
अच्युतम् = अचल / अविचलित (स्थिर बुद्धि वाले)
वरः = सर्वोत्तम (वरण करने योग्य / चुनने योग्य)
व्रातपतये = व्रात + पतये = मानवों के स्वामी
प्रेरित
- Lord Ganpati - The Eternal Source of Knowledge and Energy
- Thoughts - Shri Guru Pawan Sinha Ji
- Book - Stories for Youth in Search of a Higher Life - By Kireet Joshi
- Book - पिङ्गलछन्दःसूत्रम्
- संकलित - * http://www.jainkosh.org/wiki/शंकर_वेदांत_या_ब्रह्माद्वैत
- http://vaigyanik-bharat.blogspot.com/2010/06/blog-post_5586.html
- https://greenmesg.org/stotras/ganesha/ganapati_atharvashirsha.php
- https://en.wikipedia.org/wiki/Three_Bodies_Doctrine
- http://jayvijay.co/2015/07/21/बुद्धि-को-शुद्ध-कर-ईश्वरी/
- http://literature.awgp.org/book/gayatri_mantra_ka_tatvagyan/v1.10
- Thoughts - Parents, Brother and Environment
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